हिंदी दिवस विशेष
संस्कारों से ही तो होती हमारी पहचान है
संस्कारी हम होंगे तो पूर्वजों का भी सम्मान है।
आधुनिकता के इस दौर में कुचल रहे संस्कार।
जीवित हैलो हाय हुई और निष्प्राण हुई नमस्कार।
चरण स्पर्श से कहलाती पिछड़ी जीवन शैली
संस्कारों की आज हुई है पूरी चादर मैली।
बुजुर्ग किसी को घर में फूटी न आंख सुहाऐ
सूख रही जड़ ही तो फिर संस्कार कहां से आए।
पूजा पाठ भूल रहे सब हुक्का गांजा पीते
बार, कैफे नाइट क्लबों में ही जीवन जीते
चैटिंग, टिकटौक,सैल्फी में ही रहते हरदम मस्त
मात पिता की उम्मीदों का सूरज होता अस्त।
तराश कांच को भी हीरा बना देते हैं संस्कार
देख देख कर ही मन में होता हर्षित सब परिवार।
सुधा बसोर
गाजियाबाद, यूपी
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