लघुकथा
देखने में ऐसा लग रहा था कि सब कुछ यथावत् चल रहा है , किंतु उसके भीतर के ख़्यालों का द्वंद्व कोई नहीं देख पा रहा था । उसके ख़्यालों की नाव, जो मस्तक पटल पर अविरल धारा-प्रवाह में बह रही थी , अचानक आई हुई उथल-पुथल से संतुलन खोती जा रही थी । सत्य-असत्य, आशा-निराशा, उचित - अनुचित के मध्य, सामंजस्य बैठाने में ,ना जाने क्यों स्वयं को स्थिर नहीं कर पा रहा था ? आवेश की लहरों के मध्य ख़्याल ,एक-एक करके बहते जा रहे थे। अब नकारात्मक ख़्यालों का वजन इतना बढ़ चुका था कि यह नाव कभी भी डूब सकती थी। वह चीख कर इन पर प्रहार करना चाहता था क्योंकि अभी भी वह डूबने की आशंका के प्रति सचेत था । एक अनजाना भय उसे चीखने नहीं दे रहा था । तभी एक नए ख़्याल से क्रांति घटित होती है । अपनी चैतन्य शक्ति और शेष बचे हुए सकारात्मक ख़्यालों से वह अदम्य साहस के साथ चीखता है । उसकी चीख की तरंगे उसकी नकारात्मकता को दूर ले जाकर पटकती हैं । तभी भीतर से आवाज आती है , तुम जीत गए । कल रात उसने स्वयं को फिर से मजबूत बना लिया था।
किरण बाला, चंडीगढ़
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