प्रेम करती हूँ - डॉ. आशा तिवारी

रचनकार संख्‍या -71


हे गंगा माँ!मैं तेरे हर रूप से बेहद प्रेम करती हूँ.... जब जब तेरा सामीप्य प्राप्त होता है.... मेरा रोम रोम खिल उठता है....तुझसे बात बात करते करते जो शैत्य और पावनत्व मेरी रूह की गहराइयों में उतरता है..... उसके लिए कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ये हाथ स्वतः ही जुड़ जाते हैं.... आत्मा व्याकुल हो जाती है.... तेरे स्वच्छ आँचल में पहुँचती हमारे स्वार्थों की कालिमा को देखकर....हृदय चीत्कार कर उठता है.... क्या इसीलिए राजा भगीरथ तुम्हें इस धरती पर लाये थे.....सैकड़ों वर्षों तप किया था उन्होंने.... कितनी मनुहार की थी तुम्हारी.... जब स्वर्ग से तुम्हारे प्रचंड वेग से धरती के बहने का भय हुआ तो महादेव की जटाओं में तुम्हें स्थान मिला... और इस तरह से बड़े सौम्य वेग से तुम इस धरती को सींचने... जीवन से परिपूर्ण करने...राजा भगीरथ के साठ हजार पुरखों को तारने इस मृत्युलोक में पहुँची...और तब से निरन्तर इस धराधाम को अपने अमृत जल से सींच रही हो....जीवन के साथ साथ तो तुम हमारा पालन पोषण करती ही हो...जीवन के बाद भी तेरे ही आगोश में चिरनिद्रा में सोने को भी मिलता है....
हे माँ!बहुत हैरानी होती है मुझे हमारे भीतर उपजी संवेदनशून्यता को लेकर...जिस माँ से सबकुछ प्राप्त कर रहे हैं... जीवन की कल्पना कर पा रहे हैं..... उसके अस्तित्व पर मँडराते खतरे के बादलों को नष्ट करने के लिए हमारी चेतना  सच्चे अर्थों में कब जागेगी...??कब हम अपनी माँ के स्नेह का कर्ज चुका पायेंगे...??कब तेरी सेवा के लिए हम सबके हाथों में अपूर्व शक्ति का संचार होगा....??
मुझे पूर्ण विश्वास है शीघ्र ही हमारे भीतर सोयी संवेदना जागेगी... गंगा माँ अपनी प्राचीन दिव्यता और भव्यता को पुनः प्राप्त करेगी....।
डॉ. आशा तिवारी
संस्कृत विभागाध्यक्षा
भारती कालेज
दिल्ली विश्वविद्यालय
9212467732



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