रचनाकार संख्या -81
भारत माँ का प्यार है गंगा शीतल निर्मल धार है गंगा,
जमुना में जब मिलती है तब लेती नव आकर है गंगा।
मुक्ति का है द्वार ये गंगा जो हमेशा खुला है ,
काशी गवाह है कि यहां सत्य तुला है।
नदी ही नहीं ,संस्कार है गंगा,
धर्म जाती का श्रृंगार है गंगा ।
गंगा की बात क्या करूँ ,गंगा उदास है ,
जो कुछ भी हो रहा गंगा के साथ है।
गंगा भी थक गई ढो -ढोकर मैल ,
तभी तो नाथो के नाथ केदारनाथ में हुए अनाथ ।
मिलाया है मनुष्य ने गंगा को विनाश से ,
और अपने जीवन को सर्वनाश से।
रोती है आज माँ गंगा और कहती है-:
विलुप्त हो जाना चाहती हूँ मैं ,
इन रिमझिमती बूंदो से मिलते मिट्टी की साँसों में।
कण -कण मेरा शांत रहे ,
और मैं मिलूँ खिलखिलाते सागर में ।
ईश्वर लीन हो अपनी साधना में,
और मैं अधर्मियों का नाश करूँ उनके ही पापों से ।
कल्पना तिवारी
नेत्र ज्योति ऑप्टिकल्स
पौड़ी गढ़वाल
उत्तराखंड-246001
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