अर्पण कर लो- रामप्रसाद मीना'लिल्हारे

 


उल्लासित   हैं   पंछी  सारे,  धरती  भी  मुस्कायी है।
खेलो,  नाचो, झूमो, गावों,  बसंत  ऋतु फिर आयी है।


उर के भीतर  खुशियाँ भर लो, सपने  रंगीन सजाओ।
बैर भाव सभी छोड़कर के,सब जन को गले लगाओ।
तन  भी  हर्षित मन भी हर्षित, चहुँओर खुशी छायी है।
खेलो, नाचो,  झूमो, गावों,  बसंत  ऋतु फिर आयी है।


कोयल कूकें,चिड़िया चहकें,सरसों फूलीं,महुआँ फूलें।
सँवर  गएं  सब  बाग - बगीचें, सज  गए  रेशमी झूलें।
नई  नवेली  दुल्हन  घर  पर, खिड़की भी  शरमायी है।
खेलो, नाचो,  झूमो, गावों,  बसंत  ऋतु फिर आयी है।


पूजन कर लो,अर्पण कर लो,धारण करके फूल लड़ी।
सारे  दुख  का  तर्पण  कर  लो, देखो आई नेक घड़ी।
सजी  हुई  दुल्हन सी  धरती, सबके  मन  हरषायी है।
खेलो, नाचो, झूमो, गावों,  बसंत   ऋतु फिर आई  है।


शीश  नवातें  माँ  सरस्वती, कंठ विराजो आ कर के।
ऐसी  तान  हमें  देना  माँ , गीत   सुनाएं  गा  कर के।
तेरा  आश्रय पाकर के  माँ, यह प्रकृति  गुनगुनायी है।
खेलो, नाचो, झूमो, गावों,  बसंत  ऋतु फिर आयी है।


टेसू   फूलें,   फूलें   पलाश,  भीनी - भीनी  गंध  बहें।
गाँव-गाँव  की गली- गली में, सब बसंती  गीत  कहें।
रूप  सुहाना  देख  प्रकृति का,धरती भी  इठलायी है।
खेलो, नाचो,  झूमो, गावों, बसंत ऋतु फिर आयी है।


स्वरचित
रामप्रसाद मीना'लिल्हारे'
चिखला बालाघाट (म.प्र.)



 


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