सुबक रहे हैं कुछ सपने --दिनेश कुमार राय

 सुबक रहे हैं कुछ सपने 

जंग की जागीर में
मेज और मसलों से दूर
सरहद के आस-पास
लहू से लथपथ
आहत,  व्यथित,  अश्रुमय
सुबक रहे है कुछ सपने ।
धुएँ संग घुलते
धमाकों से सहमते
शोलों से झुलसते
चीखते-चिल्लाते
पथराई निगाहों से
तख्त को निहारते
सुबक रहे है कुछ सपने ।
अन्धकार की आगोश में
किसी दरख्त की शाख पर
बन्दुकों के पीछे
जंगली लिबास में 
ठिठुरते वदन से
स्थिर पुतलियों को जगाते 
सुबक रहे है कुछ सपने ।
युद्ध के चौखट पर
प्रतिशोघ की परछाई में
अमन की ज़मीन को ढाँपते
आतंक के सूखे पत्तों पर
भूख से बेहाल, बदहाल 
सुबक रहे है कुछ सपने ।
---दिनेश कुमार राय, पटना


 

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