रचनाकार संख्या 80
*गंगा की व्यथा*
मानो मैं गंगा माॅ हूॅ
सुन लो मेरी पुकार
मेरी विवश व्यथा को
कोई समझ न पाया
युगों-युगों से बह रही हूॅ
दुख अनंत सह रही हूॅ
पीड़ा न कोई समझा
कैसे मैं जी रहीं हूॅ
मानो मैं गंगा माॅ हूं
सुन लो मेरी पुकार
लाऐ थे भागीरथ मुझे
तुम्हारे पाप धोने
धरा पर आई थी मैं
नहीं स्वयं को खोने
मानो मैं गंगा माॅ हूॅ
सुन लो मेरी पुकार
निर्मल था जल ये मेरा
मुझको मलीन करो न
टूटी क्यूं मेरी धारा
कहती मैं बार बार
मानो मैं गंगा माॅ हूॅ
सुन लो मेरी पुकार
इतिहास मेरा अमर है
नहीं तुमको ये फिकर है
कल भी सवारों मेरा
अब लो शपथ सभी मिल
कर दो मेरा उद्धार
मानो मैं गंगा माॅ हूॅ
सुन लो मेरी पुकार।
नीता चतुर्वेदी
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