अबकी बसंत में -  विजेता 


दीवार पर टंगी कैलेंडर बताती है
 आज बसंत पंचमी है 
अचानक से अब तक का पढा 
सुना, देखा बसंत दिल- दिमाग 
आंखों एवं कानो में उभरकर 
समवेत रूप में आ गया .....
आंखों के सामने फूलों की बहार 
कानों में रस घोलती कोयल की पुकार
 रोम रोम में पुलक भरती बासंती बयार
 सांसो को महकाती
आम की मंजरी  औ पलाश 
 का नूतन श्रृंगार
 खट्टे मीठे बेरो से बचपन का प्यार
 समूचे इंद्रिय बोध से महसूसती
 बसंत का आगमन 
 व्याकुल हो खोलती हूं 
 घर के सारे दरवाजे खिड़कियां 
 भरने को आंखों में, मन में, जीवन में 
 अपने घर आंगन में
 प्रकृति - यौवन को, प्रेम को
 पर यह क्या???
 बाहर बारिश हो रही हैं
 धुंये एवं कोहरे से सनी प्रकृति 
 दुबकी  सहमी उदास दिख रही है
 कोयल का तो कहीं पता नहीं
 पर हां कुछ कौवे शहर में
 बिजली ,फोन और ना जाने
 किन-किन तारों पर भीगते, ठिठुरते 
 जिंदा रहने की जद्दोजहद में लगे हैं 
 फूलों की खुशबू सनी  बासंती बयार 
 तो नहीं पर सामने की फैक्ट्री से 
 इतना काला धुआं निकल रहा है 
 कि फेफड़ों में घुटन सी हो रही है
  तेजी से सारी खिड़कियां ,दरवाजे बंद करती हूं 
 बिस्तर पर लेटती हूं इस प्रार्थना के साथ 
 कि 'बसंत 'से कम से कम सपने में 
 मुलाकात हो जाए 
 दो चार ही सही 
 प्यार की बात हो जाए..


डा0 विजेता साव
कोलकता पश्मिच बंगाल


 



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ