रचनाकार संख्या-44
गंगा की धारा, मैं गंगा की धारा
हूँ अविरल प्रवाहित मै गंगा धारा
मंदाकिनी ,जाह्नवी , सुरसरिता
विष्णुपगा सुरध्वनी अलकनंदा
कई नामों से जग ने मुझको पुकारा
गंगा की धारा, मैं गंगा की धारा
विष्णुपदी शिवजटा में समाई
भागीरथी तप से धरती पे आई
पुण्यधरा है ये मुक्ति का द्वारा
गंगा की धारा, मैं गंगा की धारा
ऊँचे हिमालय से समतल बहती
बंगाल की खाड़ी में जाके मिलती
मिला राह में जो, उसे मैंने तारा
गंगा की धारा ,मैं गंगा की धारा
बहती हूँ भू-भाग सबसे बड़ा है
मेरे तटों की मृदा उर्वरा है
सदानीर, निर्मल, हो पावन किनारा
गंगा की धारा, मैं गंगा की धारा
मुझमें विसर्जन हुए पाप तेरे
होता है उद्धार आचमन से मेरे
ॠणि है सदा से ये संसार सारा
गंगा की धारा, मैं गंगा की धारा
पथ में जो आए उसे तारती हूँ
अपनी दया भी उसे वारती हूँ
मैं माँ हूँ जगत की, हूँ सबका सहारा
गंगा की धारा,मैं गंगा की धारा
आंचल में मेरे कई जीव पलते
जल से कृषि सींच, चूल्हे हैं जलते
मेरी उस दया को, भला क्यों बिसारा
गंगा की धारा ,मैं गंगा की धारा
गति है न निर्बाध, हूँ अब न निर्मल
करते हो हर रोज दूषित मेरा जल
मलीन हुई क्यो ,ये तुमने विचारा
गंगा की धारा, मैं गंगा की धारा
यदि कर सको तो ये उपकार करना
नही अब कलुष, मेरे दोहन से बचना
कर्तव्य से तुम करो न किनारा ।
गंगा की धारा, मैं गंगा की धारा
-वंदना दुबे
धार (मध्य प्रदेश)
9926088757
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